मौलवी साहब की ग़लतियाँ
आदमी की क़िस्में
आदमी की दो क़िस्में होती हैं:
अच्छा और बुरा।
मौलवियत पढ़ा हुआ आदमी भी दो तरह का होता है:
अच्छा और बुरा।
अच्छे मौलवी और बुरे मौलवी, दोनों में एक बात समान होती है। दोनों ने एक ही कोर्स पढ़ा होता है। जिसमें सियासत, डिप्लोमेसी, इकनोमिक्स, मनोविज्ञान और आत्मरक्षा के सब्जेक्ट नहीं होते। इसीलिए हिंद में जब भी कोई मौलवी लीडर बना, वह सियासत के मैदान में फ़ेल रहा है।
मौलवी अच्छा हो या बुरा, वह सियासत के मैदान में आए तो इस मैदान की क़ाबिलियत पैदा करके आए वर्ना वह 'इसकी' या 'उसकी' हिमायत करने से ज़्यादा कुछ नहीं कर पाएगा।
अच्छे और बुरे मौलवी, सब आज यही कर रहे हैं। याद रखें कि नेक लोगों को बुरे लोगों का पिछलग्गू बनाने का नाम 'हिदायत की राह' दिखाना और लीडरी करना नहीं होता।
(#मिशनमौजले के सदस्य इस लेख को "कापी पेस्ट करने की ज़रूरत को समझें।")
अच्छे और बुरे मौलवी में बुनियादी अंतर
बुरा मौलवी दूसरे धर्म के लीडरों के वादे पर डील करके अपनी क़ौम से उन्हें वोट दिलवाता है और अच्छा मौलवी भी यही करता है।
अपनी क़ौम को दूसरे धर्म के लीडरों के पीछे चलाने में अच्छे और बुरे मौलवी समानता रखते हैं
लेकिन दोनों में एक अंतर होता है।
बुरे मौलवी को पहले से पता होता है कि दूसरे धर्म का लीडर विकास और सुरक्षा का अपना वादा पूरा नहीं करेगा
जबकि अच्छे मौलवी को यह बात तब पता चलती है जब वह लीडर सफलतापूर्वक मुस्लिमों का ऑप्रेशन कर चुका होता है और क़ौम तबाह हो जाती है।
फिर अच्छा #मौलवी सियासत छोड़कर अल्लाह से अपनी ख़ताओं की माफ़ी माँगते हुए मर जाता है लेकिन बुरा मौलवी सियासत के मैदान को कभी नहीं छोड़ता।
अच्छे मौलवियों के बेटे और पोते हुकूमत करने वाली सियासी पार्टी से क्या डील करते हैं?
जब अच्छा मौलवी दूसरे धर्म के लीडरों से धोखा खाने के बाद अपने बेटों को बताता है कि मेरे साथ धोखा हुआ है। उसके बेटों को इस धोखे पर बहुत ग़ुस्सा आता है। वे जागरूक हो जाते हैं। अब उन्हें कोई सियासी दल धोखा नहीं दे सकता क्योंकि वे जान चुके हैं कि सियासी नेता के वादे झूठे होते हैं।
जब अच्छा मौलवी मर जाता है तो उसके बेटे दूसरे धर्म के लीडरों से डील करते हैं कि हम मुस्लिम समाज में मुस्लिम क़यादत नहीं पनपने देंगे। हम मुस्लिमों को आपके पीछे लगाए रखेंगे और हम विदेशों में जाकर पूरे विश्व को बताएंगे कि मुस्लिम के लिए (यानी हमारे जैसे दलाल एजेंटों के लिए) भारत स्वर्ग है। बदले में आप हमारे स्वर्ग की रक्षा करेंगे, जो हमने अपने घरों को बना लिया है। मुस्लिम क़ौम अब भी मरती है लेकिन अच्छे मौलवी के पुत्रों और पोतों को अब ग़ुस्सा नहीं आता क्योंकि अब उन्हें कोई धोखा नहीं दे रहा है। अब सब कुछ तयशुदा शर्तों पर हो रहा है।
अच्छे मौलवी का पोता और ज़्यादा एडवाँस एडिशन की राजनीति करता है। वह #राष्ट्रवादी बन जाता है। भारत में राष्ट्रवादी बनने की एकमात्र आवश्यक शर्त पाकिस्तान के विरोध में अधिक से अधिक बोलना है।
पोता #पाकिस्तान को ठुकराते हुए #निज़ामे #मुस्तफ़ा को ठुकराने की घोषणा भी कर देता है। इस तरह अच्छे मौलवियों की मौत के बाद उनके बेटे उनकी हैसियत का #नक़दीकरण करने में जुटे रहते हैं और वे भारतीय राजनीति में ख़ुद की जगह भी बनाए रखते हैं।
दलाली और एजेन्टी चल रही होती है और मुस्लिम अवाम समझती है कि हज़रत उनके भविष्य का निर्माण कर रहे हैं।
जबकि निर्माण हो रहा होता है हज़रत की कोठी का, जो पूरे साल चलता रहता है। हज़रत की कोठी में क़ालीन, पर्दे और ऐश के वे सब सामान भरे मिलते हैं, जिन्हें #नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम इसतेमाल करना पसंद नहीं करते थे।
इनका बाप दादा अच्छा मौलवी भी इन सब ऐश से दूर रहता था। उसकी #सादगी के सच्चे क़िस्से सुनाकर उसके बेटे उसके मुरीदों से काफ़ी #दौलत तोहफ़ों में समेट लेते हैं।
अगर आप ग़रीब और बेरोज़गार हैं तो #आत्मनिर्भर बनने के लिए आप एक अच्छे #मौलवी बन जाएं और अपने बेटों को वही करना सिखा दें, जो अच्छे मौलवियों के मशहूर बेटे कर रहे हैं। उनके पास भी काफ़ी दौलत है। आपके बेटों के पास भी काफ़ी दौलत आ जाएगी।
मौलवी चाहते हैं कि मदरसे इतने हो जाएं कि सब मुस्लिम बच्चे मौलवी हो जाएं।
अगर सब मुस्लिम बच्चे मौलवी हो जाएंगे तो मुस्लिम कभी #बग़ावत नहीं कर सकेंगे क्योंकि उन्हें अपना हित सोचने की आज़ादी न रहेगी। उन्हें किसे वोट देना है?
यह बात अच्छे मौलवियों के बेटे और पोते तय करते हैं। अच्छे मौलवियों के बेटे और पोते #डील के लिए हमेशा अवेलेबल रहते हैं।
अत: दीनी तालीम के #मदरसे #भारत की रक्षा के लिए आवश्यक हैं।
#मिशनमौजले सहर्ष सूचित करता है कि यह #धारावाहिक लेख अभी जारी है।
अच्छे और बुरे मौलवी साहिबान की लीडरशिप और दलाली व एजेंटी के कारण मुस्लिम शिक्षा, सुरक्षा, व्यापार व सरकारी पदों में पिछड़ते चले जाते हैं
क्योंकि ये चीज़ें उनके विज़न और नीयत में नहीं थीं। जो चीज़ विज़न और नीयत में नहीं होती, वह मिलती भी नहीं।
अब क़ौम की बर्बादी अपने सिर न अच्छा मौलवी लेता है और न बुरा मौलवी।
अच्छे और बुरे मौलवी उम्मत की बर्बादी का कारण ख़ुद को नहीं बताते बल्कि लोगों के गुनाहों को बताते हैं कि तुम नमाज़ छोड़ते हो और सिनेमा देखते हो। इसलिए अल्लाह नाराज़ होकर तुम पर ज़ालिम हुक्मराँ मुसल्लत कर रहा है।
जबकि ज़ालिम हुक्मराँ से पहले जो हुक्मराँ थे। वही उम्मत को बर्बाद कर चुके थे और उन्हें वोट दिलवाते थे अच्छे मौलवी और बुरे मौलवी भी उन्हीं को वोट दिलवाते थे।
मौलवी साहिब यह क्यों नहीं कहते कि अल्लाह हमारे पीछे बिना सोचे समझे चलने के कारण तुमसे नाराज़ है। अब अक़्ल से काम लो और देखो हमें लीडरी नहीं आती।
हम तो बस ऐसे ही अटकल से तुम्हें सियासत में उल्टे मशविरे देते आए हैं।
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आप देख रहे हैं
'उम्मत की बर्बादी में मौलवियों की भूमिका' पर हमारे अनोखे लेख।
आपको यह 4 लेखों का एक संकलन कैसा लगा?
अपने कमेंट में हमें न बताना क्योंकि आपमें से अधिकतर लोग बताते ही नहीं जबकि बताना चाहिए।
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अगर आज मुस्लिम अपने गुनाह की वजह से अल्लाह के अज़ाब में गिरफ़्तार हैं तो वह गुनाह यही है कि वे लीडर बने हुए अच्छे और बुरे मौलवियों और दानिश्वरों के पीछे चले, जिनके पीछे नहीं चलना चाहिए था क्योंकि
बाद में आने वाले नतीजों से साबित हो गया कि
वे लीडरी, सियासत, डिप्लोमेसी और साज़िशों की समझ नहीं रखते थे।
अब उन फ़ेल लीडरों के बेटे, पोते, नवासे और फ़ैन उन्हें अज़ीम बताते हुए लीडरी कर रहे हैं जबकि इन्हें भी लीडरी, सियासत, डिप्लोमेसी और साज़िशों की समझ नहीं है। सो ये भी किसी बहके हुए बेदीन शख़्स की पार्टी के मेंबर बनकर मुस्लिमों से उसे वोट दिलवाते हैं। बस, इनकी लीडरी इतनी सी ही है।
जो अच्छा मौलवी था, वह इस्लाम की समझ में और नेक चलन में अज़ीम था। सियासत के मैदान में वे अज़ीम मौलवी फ़ेल थे जैसे कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हसरत मोहानी और उनके साथ चलने वाले दूसरे बड़े मौलवी।
सियासत में नाकाम रहने के बावुजूद मैं उनके इल्म और उनकी नेकी की वजह से उनकी बड़ी इज़्ज़त करता हूँ। आदमी तो वह अच्छे थे। अक्सर अच्छे आदमी सियासत में सफल नहीं होते। सियासत में सफलता के लिए मौजूदा दौर में जो चीज़ें चाहिएं, वे कुछ और हैं। उन्हें मौलवी साहब से ज़्यादा माफ़िया जानते हैं। यही वजह है कि जिन लोगों पर आपराधिक मुक़दमे दर्ज हैं, जब वे सियासत में आते हैं तो वे मौलवी साहब के और नेक आदमी के मुक़ाबले जीत जाते हैं।
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मैंने सपाट ज़ुबान में 5 लेख लिखकर यह बताया है उम्मत की बरबादी की असली वजह यह है कि अच्छे और बुरे मौलवी उम्मत का राजनैतिक मार्गदर्शन कर रहे थे जबकि वे इस फ़ील्ड के एक्सपर्ट न थे।
सीधी सपाट ज़ुबान इसलिए रखी गई है कि इसे पढ़ते ही आम आदमी की समझ में बात आ जाए और #मौलवी साहब बिदक जाएं। जिस बात से आदमी बिदक जाता है। वह बात उसके दिल पर नक़्श हो जाती है और वह उस पर बेइख़्तियार होकर बार बार सोचता रहता है। उसके बाद अधिकतर लोग उसे रद्द कर देते हैं लेकिन फिर भी कुछ लोग उस पर अमल करके ख़ुद को बदल लेते हैं। अगर एक मौलवी भी बदल गया तो पूरी उम्मत को राह दिखाने के लिए ऐसा एक मौलवी भी काफ़ी है, जिसे #इमामत और #क़यादत में काम आने सब्जेक्ट्स में महारत हो।
फ़ेसबुक पर सपाट ज़ुबान में लिखना ठीक है लेकिन जब आप मौलवियों के बीच में घिरे हों तो आप हमारी तरह सपाट ज़ुबान में मत लिखना। उसे मौलवी और उनके मुरीद पसंद न करेंगे बल्कि ऐसे लिखना जिसे मौलवी और उनके मुरीद पसंद करें।
अगला लेख हम वैसा ही लिखेंगे,जिसे मौलवी और उनके मुरीद पसंद करेंगे।
वे क्या पसंद करेंगे?
#मिशनमौजले कहता है कि
हर इंसान तारीफ़ और शुक्रिया पसंद करता है।
मौलवियों की भी तारीफ़ की जाती है तो वे और उनके मुरीद इसे पसंद करते हैं। हम आपकी तालीम के लिए अपना अगला लेख लिखेंगे। मौलवियों के बीच आप उसी तरह की बातें बोलेंगे तो वे आपकी हिमायत में खड़े हो जाएंगे।
इन् शा अल्लाह!
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अल्लाह का लाख लाख शुक्र है कि उसने हमें ईमान की दौलत से नवाज़ा और हम उन आलिमों के भी शुक्रगुज़ार हैं जिन्होंने अपने जान, माल और वक़्त की क़ुर्बानियाँ देकर हम तक ईमान और इस्लाम की दौलत पहुंचाई। यह सोचकर भी हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि अगर उन्होंने सुस्ती और ग़फ़लत बरती होती तो आज हम इंसान के रूप में जानवर महज़ होते। हमें सही और ग़लत का, जायज़ और नाजायज़ का शुऊर न होता।
अपने मौलवियों का जितना भी शुक्रगुज़ार हुआ जाए, होना वाजिब है और फिर भी उनका हक़ अदा नहीं हो सकता। मौलवी साहब सिर्फ़ मदरसों तक ही महदूद न रहे बल्कि जब ज़रूरत पड़ी तो उन्होंने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ मैदान में लड़ाई भी की और सियासत भी की। हालांकि उन्हें पता था कि अंग्रेज़ अय्यार और मक्कार है और उससे जीतना मुश्किल है और यही हुआ। उलमा ए दीन फ़रेब और साज़िश से दूर रहते थे। इसलिए वे अंग्रेज़ से शिकस्त खा गए क्योंकि अंग्रेज़ बहादुरी से नहीं साज़िश और फ़रेब से जीतता था। अंग्रेज़ के जाने के बाद भी आलिमों ने उम्मत को ईमान पर क़ायम रखने के लिए सियासत की और इसमें भी उन्हें अपने हमवतन सियासतदानों से बार बार धोखा मिला। जिससे उनका दिल शिकस्ता हुआ लेकिन फिर भी उन्होंने अपनी वुसअत भर लोगों को बेदीनी और कुफ़्र से बचाने की कोशिशें हर सतह पर जारी रखीं। आज हमारे पास ईमान की दौलत है तो इसके पीछे उलमा की बेशुमार क़ुर्बानियां हैं।
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त गुज़र चुके उलमा की क़ब्र को नूर से भरे और उनके दर्जे बुलंद करे।
#मिशनमौजले तहरीक देता है कि
हमें अपने उलमा की अज़ीम क़ुर्बानियों को किताबों और वीडियोज़ के ज़रिए नई नस्ल तक और हर धर्म के लोगों तक पहुंचाना चाहिए ताकि वे जान लें कि आज वे जिस आज़ादी और बराबरी का लुत्फ़ उठा रहे हैं, उसके लिए जानें किन लोगों ने दीं?
और इसी के साथ वे अज़ीम आलिम सियासत, डिप्लोमेसी, मनोविज्ञान, सेल्फ़ डिफ़ेंस और वैलनेस के जिन सब्जेक्ट्स की महारत में कमज़ोर थे और जिस कमज़ोरी की वजह से वे दुश्मनों से शिकस्त खा गए। उस कमज़ोरी को दूर करने के लिए मदरसे और कालिज के स्टूडेंट्स को सियासत, डिप्लोमेसी, मनोविज्ञान, सेल्फ़ डिफ़ेंस और वैलनेस के सब्जेक्ट्स की आनलाईन और आफ़लाईन अच्छी तालीम देने का इंतेज़ाम करना चाहिए। जब हम ऐसा करेंगे तो आलमे बरज़ख़ में हमारे उलमा की रूहें ज़रूर मसरूर होंगी और वे हमारे लिए दुआएं करेंगी। यह एक यक़ीनी बात है। हमें अपने उलमा की विरासत की हिफ़ाज़त करनी है और उसमें मज़ीद इज़ाफ़ा भी करना है, इन् शा अल्लाह!।
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मैंने मौलवियों की लीडरी को उम्मत की तबाही का ज़िम्मेदार ठहराते हुए सपाट ज़ुबान में कुछ लेख लिखे और फिर कल एक लेख उन्हें इल्ज़ाम से बरी करते हुए लिखा और उन्हें उम्मत को ईमान पर बाक़ी रखने वाला बताया।
अगर आप ध्यान से दोबारा सभी लेख पढ़ेंगे तो ये एक ही बात कहने के दो अलग स्टायल हैं। दोनों तरह के लेखों में यही एक बात कही गई है कि जो शख़्स जिस मैदान का माहिर न हो, वह उस मैदान में कोई ज़िम्मेदारी संभालेगा तो वह कामयाब न होगा और उसके पीछे चलने वाले तबाह हो जाएंगे।
पहला स्टायल आधुनिक शिक्षित समाज में चलता है। उसमें बात को बिना लाग लपेट के सीधे कह दिया जाता है।
दूसरा स्टायल दीनी मदरसों के मौलवियों के समाज में चलता है। उसमें बात को टू द पॉइंट सीधे नहीं कहते। जो बात कहनी होती है, उससे पहले बहुत सी दूसरी बातें कही जाती हैं और हज़रते अक़दस को हर इल्ज़ाम से बरी क़रार देकर उन्हें मज़लूम दिखाया जाता है ताकि अवाम की अक़ीदत उनमें और मौलवी समाज में बदस्तूर बनी रहे।
#आत्मनिर्भर बनने के लिए आपको हरेक समाज के मनोविज्ञान की और बोलने की समझ ज़रूरी है कि कहाँ पर आपको एक ही बात कैसे पेश करनी है!
आप #atmanirbharta_ki_openuniversity
में #atmanirbharta_coach से घर बैठे ऐसी बातें सीख रहे हैं, जो किसी यूनिवर्सिटी में मुफ़्त नहीं सिखाई जातीं।
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बात चल रही थी अच्छे मौलवियों की। अच्छे मौलवियों की सूची बनाई जाए तो उसमें एक नाम मौलाना मन्ज़ूर नौमानी साहब का भी होगा।
#मौलाना मंज़ूर नौमानी रह० की और उनके आलिम बेटों की ख़िदमतें बहुत अज़ीम हैं। जिसके लिए उम्मत उनकी मशकूर है। मौलाना मंज़ूर नौमानी रह० की एक अच्छाई यह भी थी कि उन्होंने अपने बेटों को आलिम बनाया और उनके बेटों की अच्छाई यह है कि उन्होंने भी दिल लगाकर पढ़ा और सिर्फ़ हिंद के मदरसों में ही नहीं पढ़ा बल्कि मदीने की यूनिवर्सिटी में भी पढ़ा। उन्होंने उर्दू, अरबी, फ़ारसी के साथ इंग्लिश लिटरेचर भी पढ़ा और हिंदी साहित्य भी पढ़ा। जिससे उनके माइंड की वे लिमिटेशन्स टूट गईं, जो हिंद के एक मौलवी के माइंड में होती हैं। सबसे बड़ा और सबसे पहला काम अपने माइंड की इन लिमिटेशन्स (दायरों) से निकलना है।
इससे आदमी यह समझने के लायक़ हो जाता है कि अतीत (past) में हमसे ग़लती कब और क्या हुई थी?
मौलाना सज्जाद साहब ने ईमानदारी से उन ग़लतियों को पकड़ने की कोशिश की और फिर उन्हें बताया भी। यह सचमुच बड़ी हिम्मत की बात है।
लेकिन हल देने की कोशिश में मौलाना सज्जाद नौमानी साहब बामसेफ़ के नेताओं के साथ जा खड़े हुए हैं, जोकि एक ही बिल से दो बार डसे जाने जैसा है।
बामसेफ़ के कई नेताओं को मुस्लिमों ने वोट देकर संसद में और विधान सभा में पहुंचाया लेकिन वे जीतने के बाद मुस्लिमों को भूल गए और केवल अपनी जाति और अपने धर्म के लोगों की शक्ति, सुविधा और समृद्धि बढ़ाने में लगे रहे और ख़ुद भी बहुत समृद्ध हो गए। इनमें से कुछ पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे और वे अपनी जान और अपना माल बचाने के लिए उनके सामने समर्पण कर गए, जिनके विरूद्ध वे खड़े हुए थे।
इसी फ़ेल तजुर्बे को दोबारा दोहराना उम्मत को ग़लत लोगों के हक़ में खड़ा करना है।
मौलाना सज्जाद नौमानी साहब ऐसा कर रहे होंगे तो उनसे वामन मेश्राम आदि नेताओं ने ज़रूर अच्छे अच्छे वादे किए होंगे।
वादे तो गाँधी जी ने ख़ान अब्दुल ग़फ़फ़ार ख़ान साहब से और नेहरू ने कश्मीर के अब्दुल्लाह से भी किए थे। उन वादों का जो हश्र हुआ, वही हश्र वामन मेश्राम के वादों का भी होगा। वामन मेश्राम चाहे पूरी ईमानदारी से कोई भी वादा करें लेकिन मुस्लिम उनके एजेंडे पर उनके साथ लगे रहे तो सत्ता मेश्राम को नहीं उनके बाद के किसी और पार्टी कार्यकर्ता को मिलेगी और पार्टी कार्यकर्ता तब दूसरी मानसिकता में होंगे। तब वह दलित नेता मेश्राम के वादों को उठाकर ताक़ पर रख देगा
और मुस्लिम नेता और मौलवी साहब फिर से यही सोच रहे होंगे कि हमसे ग़लती कब और क्या हुई?
इसलिए ग़लती करने से पहले देखो कि ग़लती कर रहे हो और उससे रूको।
किसी सियासी नेता के वादे पर हरगिज़ निर्भर न बनो।
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#मौलाना मंज़ूर नौमानी रह० और उनकी सब आलिम औलाद की हिम्मत और ख़िदमात बहुत अज़ीम हैं,
जिसके लिए उम्मत उनकी मशकूर है।
... लेकिन एक प्रैक्टिकल मसला यह है कि हिंद की सियासत में झूठ और साज़िश के तत्व ख़ुद मौलाना सज्जाद नौमानी साहब ने पहचानकर बताए हैं। जिनसे बाबरी मस्जिद टूटी और मुस्लिम औरतों की आबरू लुटी।
इनसे बचने के लिए हिंद के मौलवियों के कोर्स में सियासत और डिप्लोमेसी का और अवाम की सुरक्षा के उपायों के कुछ सब्जेक्ट रखे जाते तो #मौलवी और #हाफ़िज साहिबान उम्मत को सुरक्षित रखने की योग्यता विकसित कर लेते लेकिन शिकस्त और बर्बादियाँ झेलने के बाद भी आलिमों ने मदरसों के कोर्स में ऐसा कोई सब्जेक्ट नहीं रखा।
इसलिए मौलवी साहिबान मजबूरी में अटकल पच्चू पर चलते हैं और इससे भी बड़ी मुसीबत यह है कि कुछ मौलवी हमेशा मुनिफ़िक़ होते आए हैं। उनके नाम के साथ अदब और ताज़ीम के अल्क़ाब लिखना भी मजबूरी बनी हुई है। जो उम्मत को मरवा गए हैं, उनके साथ रहमतुल्लाहि अलैह लिखना पड़ता है।
आज भी संघ जनित दलों में और कांग्रेस में मुनाफ़िक़ मौलवी भरे हुए हैं। जिनका काम मुस्लिम इत्तेहाद को तोड़ना है ताकि मुस्लिम मुशरिक लीडरों को वोट देते रहें।
अब मौलवी साहिबान और हाफ़िज़ जी वामन मेश्राम और चंद्रशेखर रावण के पीछे भी लग लिए हैं क्योंकि इनमें सियासी शुऊर नहीं है।
दिल्ली में जब हक़ परस्तों पर सख़्त कार्रवाई हुई तो वामन मेश्राम और चंद्रशेखर रावण के समर्थकों में से कितने उनकी लड़ाई में साथ खड़े होकर उनकी ढाल बने?
अंत में हल यही है कि दूसरों का साथ देने की पुरानी रविश के बजाय मौलाना अपनी लीडरशिप में अपने लोगों को और सब धर्म के लोगों को नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरह लेकर चलें तो वे मौलाना गुज़रे हुए लीडर मौलवियों की तरह धोखे और साज़िश से महफ़ूज़ रहेंगे,
इन् शा अल्लाह!
#कहने_का_मक़सद यह है कि
दलितों में न्याय का चरित्र है या नहीं?, अब तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया। दलित नेता दूसरों को साथ लेकर केवल ख़ुद को मज़बूत करते हैं और जब ये मज़बूत हो जाते हैं तो संघ इनके लीडरों से डील करके उन्हें अपने साथ जोड़ लेता है। संघ ने अब तक ऐसा किया और #संघ आगे भी #दलित लीडरों से अपने हित में काम लेगा और ये उनकी मर्ज़ी के काम करेंगे क्योंकि ये मानसिक रूप से संघ के लीडरों के ही धर्म पर और उनके ही चरित्र पर चलते हैं।
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अपने माइंड की मौजूदा सीमाओं (limitations) से निकलने का तरीक़ा
Yumna: Sir apne mind ki limitation s kse nikla ja skta h ?
Mind Programming Coach: Yumna , माइंड में सीमाएं और दायरे हमेशा रहते हैं क्योंकि ये उन बातों और तजुर्बात से बनते हैं जो हम बचपन से सीखते हैं।
जब हम कुछ नया सीखते हैं तो पुरानी सीमाएं टूट जाती हैं। इसलिए आपको ज़िन्दगी के जिस पहलू में कुछ बेहतर करना हो, आप उस पहलू में कुछ नया और रिज़ल्ट देने वाला इल्म सीखें और उसका तजुर्बा करें। इससे आपका माइंड तंग दायरे से निकल कर ज़्यादा बड़े दायरे में सोचेगा।
#अल्लाहपैथी #allahpathy के अनुसार सोच के छोटे और बड़े दायरे ही इंसान को छोटा ओर बड़ा बनाते हैं। इन सब सीमाओं और दायरों से आपके सबकॉन्शियस माइंड में एक नक़्श बनता है, जिसे #lifecoach #paradigm कहते हैं। इसी #पैराडाइम के साँचे में यूनिवर्सल एनर्जी ढलकर हालात और मौकों के रूप में दिखती है। इसलिए सोच के दायरे और नक़्श हमेशा ऐसे बनाएं, जिनसे आपकी ज़िन्दगी को सपोर्ट और दुश्मनों को शिकस्त नेचुरली मिलती रहे। इन बातों को #selfhelpbooks में काफ़ी अच्छी तरह समझाया गया है।
अगर आप अपने माइंड की मौजूदा सीमाओं (limitations) से निकलना चाहती हैं तो आप सबकॉन्शियस माइंड के काम करने के बारे में ज़रूर पढ़ें और समझें और उस इल्म पर अमल करें। आपको इसमें 3-4 साल लग सकते हैं। यह एक गहरा इल्म है और सबकी समझ में यह आता भी नहीं है।
इसलिए सब्र ज़रूरी है।
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आम तौर से उलमा ए सू यानी बुरे आलिमों को लोगों के और दीन के बिगड़ने की वजह माना जाता है लेकिन हक़ीक़त में दीन में और मुस्लिम समाज में बिगाड़ के ज़िम्मेदार उलमा ए हक़ भी होते हैं,जो औरतों को मस्जिदों में जाने से रोकते हैं और उन्होंने उनकी दीनी तालीम का और उनकी दुनियावी तालीम का कुछ इंतेज़ाम न किया। जिस अज्ञानता के कारण आज मुस्लिम लड़कियां इधर उधर के दुश्मनों के साथ भाग रही हैं।
दीन में बिगाड़ के ज़िम्मेदार उलमा ए हक़ भी हैं,
जिन्होंने मुस्लिम समाज को यह तो बताया कि अगर बंदों के हक़ मारे तो अल्लाह बंदों के हक़ माफ़ न करेगा लेकिन वे अपने ख़ुतबों में यह नहीं बताते कि बंदों के हक़ कितने हैं, जो अदा करने हैं?
बंदों के हक़ 25 है़ या 50 हैं या 73 हैं?
किसी औरत को नहीं पता बल्कि किसी दीनदार मर्द को भी नहीं पता।
शायद किसी आलिम ने भी यह इल्म कभी न दिया होगा।
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भारत के पतन का मूल कारण मुसलिम आलिम हैं, जिन्होंने संघीतकारों के गिरोह की ग़लत सोच का इलाज नहीं किया है। जबकि ये मुस्लिम शासनकाल में फ़ुल पावर में थे।
मुस्लिम शोधकर्ताओं को चाहिए कि वे सत्यावलोकन और
गहरे अध्ययन के पश्चात मुस्लिम समाज को यह बात समझाएं कि
हेडगेवार ने मुस्लिमों को एक समस्या के रूप में देखा और उसका हल तलाश किया तो उन्होंने उसका हल यही तलाश किया, जो अब चल रहा है।
आपमें से जब भी कोई संघीतकारों को समस्या के रूप में देख लेगा तो आपको उसका हल बहुत आसान दिखाई देगा।
और वह हल यह है कि हिंदू शब्द , हिंदुस्तान शब्द बोलना बंद कर दीजिए।
संघीतकारों को #हिंदू शब्द से शक्ति मिलती है।
यह शक्ति मुस्लिमों ने और फ़ारसी बोलने वाले मौलवियों ने दी है।
अलग अलग धर्मों और जातियों के लोगों को विदेशी भाषा के शब्द 'हिंदू' ने ही एक किया है और हिंदू कहकर ही संघीतकार बहुसंख्यक दिखाते हैं ख़ुद को जबकि ये अल्पसंख्यक भी नहीं हैं बल्कि #न्यूनसंख्यक हैं।
सबसे पहले संघीतकारों को न्यूनसंख्यक बनाएं और फिर ये आसानी से शांति के समझौते पर मान जाएंगे।
लेकिन मुस्लिम और मौलवी साहिबान को हिंदू और हिंदुस्तान शब्द बोलने से रोको तो वे इस बात को नहीं मान सकते।
इस तरह ये उलमा ए हक़ व उलमा ए सू, सभी झूठ को सच मानकर संघ को शक्ति देते रहेंगे।
आदिवासी, दलित, सिख और लिंगायत नेता कहते हैं कि हम हिंदू नहीं हैं लेकिन उलमा ए हक़ उन्हें हिंदू ही मानते हैं। उलमा ए हक़ के उन्हें हिन्दू बोलने से मुस्लिम भी उन्हें हिन्दू मानते हैं। जबकि हक़ीक़त इसके ख़िलाफ़ है। मौलवी साहिबान और मुस्लिम इस हक़ीक़त को पहचानें।
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संघ की सारी शक्ति पोलेराइज़ेशन में, धुव्रीकरण में है। जिसे वह हिंदू और मुसलमान के नाम पर करता है।
हिंदू नाम वेद, उपनिषद, स्मृति, गीता, रामायण और महाभारत में नहीं है और मुसलमान शब्द क़ुरआन और हदीस में नहीं है।
वेदों में जो शब्द वैदिकों के लिए आया है, वह शब्द उनके लिए बोलो और ख़ुद के लिए मुस्लिम शब्द बोलें क्योंकि मुस्लिम नाम क़ुरआन में आया है।
इतनी सी बात से धुव्रीकरण की बुनियाद ही टूट जाएगी।
हिंदू कोई भी न रहेगा, मुस्लिम की निगाह में।
असल में, मैं अपने लेखों से इस अहम बात पर तवज्जो दिलाता हूँ कि मोमिन की निगाह का इलाज करना ज़रूरी है ताकि वह अपनी निगाह से तक़दीर बदल दे:
निगाहे मर्दे मोमिन से बदल जाती हैं तक़दीरें
मुस्लिम आलिम बौद्धों, जैनियों, सिखों, दलितों, आदिवासियों और लिंगायतों को हिंदू कहना बन्द करें।
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उलमा ए सू यानी बुरे आलिमों को उलमा ए हक़ ने किताबें लिखकर इतना बड़ा पापी बताया है कि मुस्लिमों ने उनसे ख़ैर की उम्मीद ही छोड़ दी।
अब मुस्लिमों की ख़ैर की सारी उम्मीदें टिक गई थीं उलमा ए हक़ पर कि ये हमारा भला करेंगे। उलमा ए हक़ ने अपनी उम्मीदें टिका दीं गाँधी जी पर कि ये हमारा भला करेंगे और उलमा ने गाँधी जी को मुस्लिम आंदोलन 'ख़िलाफ़त आँदोलन' की बागडोर सौंप दी। ख़िलाफ़त आँदोलन से अंग्रेज़ और ख़ुद गाँधी जी भी बड़ा अन्कम्फ़र्टेबल फ़ील कर रहे थे। ख़िलाफ़त ख़त्म होने से गाँधी जी का क्या नुक़्सान हो रहा था?
सो एक दिन गाँधी जी ने ख़िलाफ़त आँदोलन वापस ले लिया और अंग्रेजों की महारानी ने राहत की साँस ली। सारे उलमा ए हक़ आपस में एक दूसरे का मुंह ताकते रह गए कि गाँधी जी ने यह क्या कर डाला!
इससे पता चला कि उलमा ए हक़ बड़े बड़े फ़ैसले महज़ अटकल पर करते हैं और उनके फ़ैसले ग़लत भी साबित हुए हैं।
अगर आप उलमा ए हक़ के पीछे चल रहे हैं तो यह हो सकता है कि आपके उलमा ए हक़ गाँधी या सोनिया गाँधी के पीछे चल रहे हों और जब कोई नेक ग़रीब आदमी ज़ुल्म करके मार दिया जाए तो उसकी बेवा और उसके यतीमों की परवरिश की ज़िम्मेदारी लेने न उलमा ए हक़ पहुंचें और न सोनिया गाँधी पहुंचे।
उलमा ए हक़ का मक़सद मस्जिद और मदरसे बचाना है न कि मुस्लिमों की जान, माल और उनकी औरतों की इज़्ज़त बचाना। उलमा ए हक़ मस्जिद नहीं बचा पाए जोकि उनका मक़सद था तो वे आस्तिकों और मोमिनों की जान, माल और इज़्ज़त कैसे बचा लेंगे, जो उनका हदफ़ (goal) ही नहीं है।
जो उलमा ए हक़ आपको दुनिया में इंसान के अज़ाब से नहीं बचा पा रहे हैं, वे आपको आख़िरत में अल्लाह के अज़ाब से कैसे बचा लेंगे क्योंकि उलमा ए हक़ क़ुरआन की आयतों से साबित करते हैं कि अल्लाह शिर्क को माफ़ नहीं करेगा और बंदों के वे हक़ माफ़ नहीं करेगा, जो हड़प लिए गए।
अब यह राज़ उलमा ए हक़ को ही पता होगा कि शिर्क की क़िस्में कितनी हैं और बंदों के हक़ 25 हैं या 73?
आम लोगों को ये बातें पता नहीं हैं।
लोगों को ये बातें क़ुरआन और नमाज़ से पता चल सकती थीं लेकिन उलमा ए हक़ ने क़ुरआन और नमाज़ पढ़ने को महज़ एक रस्म बना दिया कि तुम इन्हें बिना समझे पढ़ो और हम इन्हें समझाएंगे नहीं। नतीजा यह है कि नमाज़ के पाबंद हाजियों को भी शिर्क और बंदों के हक़ की डीटेल नहीं पता कि शिर्क से कैसे बचें और बंदों के हक़ कैसे अदा करें। बंदों के कितने हक़ अदा नहीं किए जा रहे हैं? किसी को नहीं पता। उलमा ए हक़ लोगों को बंदों के हक़ का इल्म देकर ही आख़िरत में होने वाले आज़ाब से बचा सकते थे। वह इल्म उलमा ए हक़ आम लोगों को देते नहीं।
उलमा ए हक़ ने मुस्लिम औरतों को मस्जिद में नमाज़ बा-जमाअत से रोक कर उन्हें दीन से और ज़्यादा दूर और शिर्क करने वालों के क़रीब कर दिया। मुस्लिम लड़की कालिज, बाज़ार और ट्यूशन जा सकती है और वह जा रही है लेकिन वह मस्जिद में नहीं आ सकती। फिर एक दिन शिक्षित मुस्लिम लड़की मंदिर वाले प्रेमी के साथ चली जाती है तो उलमा ए हक़ कहते हैं कि उस लड़की ने बहुत बड़ा गुनाह किया। उसने अपनी आख़िरत ख़राब कर ली।
उलमा ए हक़ यही बात उसे गुनाह करने से पहले समझाते। यही उलमा ए हक़ का काम था।
उलमा ए हक़ कहेंगे कि हज़रत उमर औरतों का मस्जिद में जाना पसंद नहीं करते थे।
हम कहते हैं कि अगर नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम औरतों का मस्जिद में आना पसंद करते थे या जायज़ समझते थे तो यह बात सामने रखी जाए और इस पर चला जाए। आज भी नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद में औरतें नमाज़ अदा करती हैं। हजरत उमर रज़ि० ने भी मोमिन औरतों को मस्जिद में जाने से तब रोका था, जब उनके घर की औरतों की दीनी तालीम मुकम्मल हो गई थी और उन्होंने हलाल-हराम का और भलाई-बुराई का पूरा इल्म हासिल कर लिया था। उलमा ए हक़ ने हज़रत उमर का फ़ैसला हिंद की उन औरतों पर भी लागू कर दिया जिन्हें तौहीद की और बंदों के हक़ की तालीम ज़रा भी हासिल न थी। उलमा ए हक़ के फ़ैसले की वजह से मुस्लिम औरतें दीनी तालीम से जाहिल रह गईं। सिर्फ़ वे औरतें ही थोड़ा सा दीनी इल्म हासिल कर पाईं जो किसी दीनी घराने में जाकर पढ़ लेती थीं। ज़ाहिर है कि किसी इंसान के घर पर 30-40 लड़कियां ही पढ़ सकती हैं, सब नहीं। मस्जिद अल्लाह का घर है और अल्लाह का घर सबकी तालीम के लिए खुला होता है। नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दौर में मस्जिद क़ुरआन और हदीस की तालीम का सेंटर थी। जिसे भी दीन पढ़ना होता था, वह मस्जिद आता था। यहां तक कि परेशान हाल और दुखी लोग मस्जिद आकर अपनी परेशानी बताकर मदद लेते थे। हर धर्म का मर्द, औरत और बच्चा नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मस्जिद आ सकता था और वह जिस तरह की जायज़ मदद चाहता था, पा सकता था। नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने और उनके बाद भी मस्जिद इबादत और तालीम के साथ हर धर्म के लोगों के लिए एक वैलनेस सेंटर भी थी। इससे मदीने के लोगों की ज़िन्दगी से जहालत, ग़रीबी, भूख और बुरी आदतें ख़त्म हो गईं। उनकी ज़िन्दगी इतनी बेहतर हो गई कि पूरी दुनिया के लोग वहाँ रहने के लिए तरसने लगे।
जहाँ जहाँ उलमा ए हक़ ने मस्जिदें बनाईं। वहां भी हालात में बेहतरी आई लेकिन वहां से जहालत, ग़रीबी और बुरी आदतें ख़त्म न हुईं क्योंंकि वहां मस्जिदों में आम लोगों को सहाबा और सहाबियात की तरह समझकर नमाज़ और क़ुरआन पढ़ने की और पढ़े गए एहकाम पर चलने की तरबियत नहीं दी गई या बहुत कम दी गई।
इस तरह हिंद में उलमा ए हक़ ने मस्जिदों को आम लोगों को और औरतों को क़ुरआन की तालीम देने के लिए उस तरह इस्तेमाल नहीं किया, जिस तरह नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और ख़लीफ़ा सहाबा इस्तेमाल करते थे। नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के हिदायत वाले तरीक़े से हटकर चलने का अंजाम यह हुआ कि नौजवान मुस्लिम लड़के लड़कियां फ़िल्मी हीरो हीरोईन के तरीक़े पर चल रहे हैं और उलमा ए हक़ गाँधी जी के तरीक़े पर।
उलमा ए सू से हमने भलाई की उम्मीदें छोड़ दीं लेकिन उलमा ए हक़ से अभी तक हमें उम्मीदें क़ायम हैं। उन्हीं उम्मीदों की वजह से हम ये लेख तज़्कीर के मक़सद से लिखते हैं ताकि उलमा ए हक़ समझें कि उन्हें कहाँ इस्लाह की ज़रूरत है।
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